Sunday, 29 March 2015

प्रकृतिपर्व सरहुल का त्योहार अर्थात "ख़ेंख़ेल बेंजा" समारोहपूर्वक सम्पन्न

प्रकृतिपर्व सरहुल का त्योहार अर्थात "ख़ेंख़ेल बेंजा" समारोहपूर्वक सम्पन्न 

गुमला । पर्व- त्योहारों के ताने-बानों से सुवासित झारखण्ड के जनजातियों के जीवन चक्र का एक महत्वपूर्ण ऋतुपर्व, प्रकृतिपर्व सरहुल का त्योहार अर्थात "ख़ेंख़ेल बेंजा"  फाल्गुनी रंगों से सजा- संवरा चैत मास की शुक्ल पक्ष तृतीया को गुमला जिला में समारोहपूर्वक व धूमधाम से संपन्न हुआ । फूलों से लदे सखुआ और पलाश के पेड़ों के मौसम में पर्व के नाम मात्र से जीवन समर्थक, प्रकृति प्रेमी, नैसर्गिक गुणों के धनी और पर्यावरण के स्वभाविक रक्षक आदिवासियों का मन-दिल रोमांचित हो उठा और उन्होंने नाच-गान व नर्तन करते हुए जुलूस के रूप में सम्पूर्ण परिवेश को गूंजायमान करते हुए पूरे नगर का परिभ्रमण किया। युवक-युवतियाँ सखुआ ,पलाशादि के फूलों की डाल लिये हुए थे , युवतियाँ जुड़े के रूप में अपनी बालों पर फूलों की श्रृंगार किए हुए थीं, उन फूलों की भीनी-भीनी महक सारे वातावरण को सुरभित कर प्रकृतिपर्व के आगमन का संकेत दे रहीं थीं।
चैत महीने के पांचवे दिन मनाई जाने वाली सरहुल तैयारी सप्ताह भर पहले ही शुरू हो गई थी । प्रत्येक परिवार से हंडिया बनाने के लिए चावल जमा की गई थी। परम्परा के अनुसार पर्व के पूर्व संध्या से पर्व के अंत तक पहान उपवास करता हैl एक सप्ताह पूर्वसूचना के अनुसार सरहुल की पूर्व संध्या गाँव की ‘डाड़ी’ साफ की जाती है ।उसमें ताजा डालियों डाल की जाती हैl उसमें ताजा डालियाँ डाल दी जाती हैं जिससे पक्षियाँ और जानवर भी वहाँ से जल न पी सकेंl सरहुल के दिन पर्व के प्रात: मुर्गा बांगने के पहले ही पूजार दो नये घड़ों में ‘डाड़ी’ का विशुद्ध जल भर कर चुपचाप सबकी नजरों से बचाकर गाँव की रक्षक आत्मा, सरना बुढ़िया, के चरणों में रखता है। उस सुबह गाँव के नवयुवक चूजे पकड़ने जाते हैं ।चेंगनों के रंग आत्माओं के अनुसार अलग-अलग होते है। किसी – किसी गाँव में पहान और पूजार ही पूजा के इन चूजों को जमा करने के लिए प्रत्येक परिवार जाते हैं।
दोपहर के समय पहान और पूजार गाँव की डाड़ी झरिया अथवा निकट के नदी में स्नान करते हैं।  किसी – किसी गाँव में पहान और उसकी पत्नी पहनाईन नदी में स्नान करते हैं| किसी – किसी गाँव में पहान और उसकी पत्नी पहनाईन को एक साथ बैठाया जाता है ।गाँव का मुखिया अथवा सरपंच उनपर सिंदुर लगाता है। उसके बाद उन पर कई घड़ों डाला जाता है।उस समय सब लोग “ बरसों,बरसों” कहकर चिल्लाते हैं ।यह धरती और सूर्य, आकाश की बीच शादी का प्रतीक है।
उसके बाद गाँव से सरना तक जूलूस निकला जाता है ।सरना पहूंचकर पूजा-स्थल की सफाई की जाती है ।पूजार चेंगनों के पैर धोकर उन पर सिंदुर लगाता है और पहान को देता है ।पहान सरना बुढ़िया के प्रतीक पत्थर के सामने बैठकर चेंगनो को डेन के ढेर से चुगाता है।उस समय गाँव के बुजुर्ग वर्ग अन्न के दाने उन पर फेंकते हुए आत्माओं के लिए प्रार्थनाएँ चढाते हैं कि वे गाँव की उचित रखवाली करें। उसके बाद पहान चेंगनों का सिर काट कर कुछ खून चावल के ढेर पर और कुछ सूप पर चुलता है ।बाद में उन चेंगनो को पकाया जाता है। सिर को सिर्फ पहान खा सकता है।कलेजे यकृत आदि आत्माओं में नाम पर चढ़ाये जाते हैं । बाकी मांस चावल के साथ पकाकर उपस्थित सब लोगों के बीच प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है।
आदिवासी परम्पराओं के जानकार प्राचीन ग्राम मुरूनगुर वर्तमान मुरगु के ग्रामप्रधान शंकर पाहन कहते हैं, ईश्वर की सर्वोच्च का सत्ता ख्याल रख कर उनके नाम पर अलग सफेद बलि चढ़ायी जाती है जो कि पूर्णता और पवित्रता का प्रतीक है। अन्य आत्माओं के नाम पर अलग – अलग रंगों के चिंगने चढ़ाये जाते हैं । पहान पूर्व की ओर देखते हुए जिस ओर ईश्वर है, कहता है,  हे पिता ! आप ऊपर हैं, “यहाँ नीचे पंच है और ऊपर परमेश्वर है ।हे पिता आप ऊपर हैं हम नीचे । आप की आंखे हैं, हम अज्ञानी हैं; चाहें अनजाने अथवा अज्ञानतावश हमने आत्माओं को नाराज किया है, तो उन्हें संभाल कर रखिए; हमारे गुनाहों को नजरंदाज कर दीजिए।” प्रसाद भोज समाप्त होने के बाद पहान को समारोह पूर्वक गाँव के पंचगण ढोते हैं । इस समय पहान सखूआ गाछ को सिंदुर लगाता और अरवा धागा से तीन बार लपेटता है जो अभीष्ट देवात्मा को शादी के वस्त्र देने का प्रतीक है।शंकर पाहन ने बतलाया कि कहीं-कहीं  पहान सखूआ फूल, चावल और पवित्र जल प्रत्येक घर के एक प्रतिनिधि को वितरित करता है, उसके बाद सब घर लौटते हैं । पहान को एक व्यक्ति के कंधे पर बैठाकर हर्षोल्लासपूर्वक गाँव लाया जाता है| उसके पाँव जमीन पर पड़ने नहीं दिए जाते हैं, चूंकि वह इस समय ईश्वर का प्रतिनिधि है ।घर पहुँचने पर पहान की पत्नी पहनाइन उसका पैर धोती है और बदले में पति से सखूआ फूल, चावल और सरना का आशीष जल प्राप्त करती है। वह फूलों को घर के अंदर, गोहार घर में और छत में चुन देती है ।पहान के सिर पर कई घड़े पानी डालते वक्त लोग फिर चिल्लाते हुए कहते हैं, - ‘बरसों, बरसो’। चैत्र शुक्ल पञ्चमी के दिन सरहुल मनाने वाले गुमला जिले के प्रायः सभी गाँवों से मिल रही सुच्नाओंके अनुसार सरहुल पर्व को लेकर उपरोक्त सभी क्रिया- कलाप ग्राम पाहन और पूजार की देख-रेख में निष्पादित कर ली गई और फिर जुलूस समारोह पूर्वक निकाली गई, जिसमें क्षेत्र के राजनीतिज्ञ, जनजातीय समाज के स्वनाम धन्य बुद्धिजीवी और पुरोहित तथा जनजातीय संघ सदान युवाओं ने भी जोशोखरोश के साथ भाग लिया। शहर और शहर के समीपस्थ क्षेत्रों के शहरवासियों और क्षेत्रवासियों ने स्थान-स्थान पर सामियाना और पेयजल व शरबत के इंतजाम कर रखे थे,जिनमें जुलूस में शामिल होने के लिए आ रहे युवक-युवतियों, बच्चों और वृद्धों को ठहर कर सुस्ताने और प्यास बुझाने की सुविधाएँ मुफ्त में उपलब्ध कराई जा रही थी । कहीं-कहीं पर बूट अर्थात चने को भींगोकर अर्थात फूलाल बूट भी बाँटे जा रहे थे ।जिनमे नमक नहीं मिलाये गये थे, जिसे चखकर देखने के पश्चात अतिउत्साहित युवा नून अर्थात नमक की माँग कर रहे थे । जुलूस में भान्ति-भान्ति के रंग-विरंगे परिधान युवक-युवतियों ने पहन रखे थे,परन्तु मुख्य आकर्षण के केन्द्र चरका अर्थात सफ़ेद और लाल रंग की पाईर अर्थात बोर्डर वाली साड़ी और लाल ब्लाउज पहनी नृत्य कर रही युवातियाँ और सफ़ेद रंग का धोती और कुरता अथवा गंजी (बनियान) पहने हुए मांदर और अन्य परम्परागत वाद्य बजाते युवक ही थे , जो अपनी बालों में में सखुआ व अन्य वासंतिक फूलों की गुच्छों को सजाये हुए वातावरण में प्राकृतिक सौंदर्य बिखेर रहे थे ।
बताया जा रहा है कि सरहुल की यह उल्लास अभी के दिनों तक चलेगी । सरहुल के दूसरे दिन अर्थात कल पहान प्रत्येक परिवार में जाकर सखूआ फूल सूप से चावल और घड़े से सरना जल वितरित करेगा । गाँव की महिलाएँ अपने-अपने आंगन में एक सूप में दो दोने लिए खड़ी रहेंगी । सूप में रखे एक खाली दोने में सरना जल ग्रहण किया जाता है दूसरे में पाहन को देने के लिए हंडिया होता है, जिसे पाहन को दे दिया जाता है। पाहन से प्राप्त   सरना जल को घर में और बीज के लिए रखे गए धन पर छिड़का जाता है। इस प्रकार पहान हरेक घर को आशीष देते हुए कहता है, “आपके कोठे और भंडार धन से भरपूर होन, जिससे पहान का नाम उजागर हो।” प्रत्येक परिवार में पहान को नहलाया जाता है। वह भी अपने हिस्से का हंडिया प्रत्येक परिवार में पीना नहीं भूलता है ।नहलाया जाना और प्रचुर मात्रा में हंडिया पीना सूर्य और धरती को फलप्रद होने के लिए प्रवृत-प्रवृद्ध करने का प्रतीक है ।सरहुल का यह प्रक्रितिपर्व कई दिनों तक अनवरत चल सकता है क्योंकि बड़ा रजस्व ग्राम अर्थत मौजा होने से फूल, चावल और आशीषजल के वितरण में कई दिन लग सकते हैं।


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