Friday, 20 December 2019

चुनाव मैदान से बाहर है कांग्रेस, परम्परागत कांग्रेसी मतदाता असमंजस, ऊहापोह और दुविधा में


चुनाव मैदान से बाहर है कांग्रेस, परम्परागत कांग्रेसी मतदाता असमंजस, ऊहापोह और दुविधा में
-रणधीर निधि

गुमला । अनुसूचित जनजातियों के लिए पूर्णतः सुरक्षित सिसई विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, वैसे -वैसे राजनितिक दलों के साथ ही प्रशासनिक सरगर्मी बढती जा रही है । सिसई विस क्षेत्र में द्वितीय चरण में 7 नवम्बर को मतदान होना है और नतीजे 23 नवम्बर को आ जायेंगे। सिसई विधानसभा क्षेत्र वर्षों तक कांग्रेस का गढ़ रहा है। बहुत अरसा नहीं बीता है, सन 1999 से 2014 तक सिसई क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनी गई गीताश्री उरांव झामुमो व कांग्रेस की सहभागिता वाली झारखंड सरकार में शिक्षा मंत्री पद पर काबिज थी।  2000 से पूर्व संयुक्त बिहार राज्य के समय और फिर झारखंड बनने के बाद भी कई सरकारों के समय कांग्रेस के लोग विभिन्न सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। इस क्षेत्र से दशकों तक कांग्रेस के कई मजबूत नेता रहे हैं, जिनमें से कई ने तो राज्य में भी अहम जिम्मेदारी संभाली है। लेकिन आज कांग्रेसी नेता सिसई विस क्षेत्र में ऊहापोह की स्थिति में हैं। यह स्थिति केवल केवल क्षेत्र और चुनावी राज्य तक सीमित नहीं है, राष्ट्रीय स्तर पर भी नेता उलझन में हैं। उलझन यहाँ तक है कि क्षेत्र की प्रमुख दावेदार रही पार्टी कांग्रेस ने आसन्न चुनाव में अपने प्रत्याशी तक नहीं उतारे । ऐसे में उसके परम्परागत मतदाता असमंजस, ऊहापोह और दुविधा में हैं कि आखिर वे अपना मत किसे दें? कहने को तो कांग्रेस का गठबंधन झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ है , लेकिन महागठबंधन के सहयोगियों को ही झामुमो प्रत्याशी के रंग- ढंग नहीं सुहा रहे।


कांग्रेस और महागठबंधन के शुभ चिंतक कहते हैं,उनकी बयानबाजी स्थितियों को और उलझा रही है। कांग्रेस नेतृत्व कोई स्पष्ट दिशा, सोच और भविष्य का खाका पेश नहीं कर पा रहा है। सम्पूर्ण देश व राज्य से कांग्रेस को लेकर चिंताजनक खबरें सामने आ रही हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने देश के कई राज्यों की भांति ही सिसई विधानसभा क्षेत्र सहित सम्पूर्ण राज्य में भाजपा के लिए मैदान खुला छोड़ दिया है। सिसई विस क्षेत्र का ही मामला लें। यहाँ के कांग्रेस विधायक के पति और कांग्रेस से पांच बार विधायक रहे बन्दी उरांव के पुत्र अरुण उरांव ने कांग्रेस के प्रति वर्षों की प्रतिबद्धता को त्याग भाजपा का दामन एन चुनाव के पूर्व थाम लिया। भले उनको वर्तमान में टिकट नहीं दी गई लेकिन भाजपा आलाकमान ने उन्हें भाजपा की अनुसूचित जनजाति मोर्चा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का पद देकर तुष्ट करने का कार्य किया है। राज्य स्तरीय कांग्रेसी नेताओं के आपसी सम्बन्ध व समन्वय भी ठीक नहीं है। इसका ताजा उदहारण कांग्रेस के नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष सह वर्तमान चुनाव में लोहरदगा विस क्षेत्र के कांग्रेसी प्रत्याशी के पद सम्हालते ही एक भूतपूर्व प्रदेश अध्यक्ष ने भाजपा का दामन थामकर उनके सामने भाजपा के टिकट पर मैदान में कूद पड़ने में छिपा हुआ है ।नए- नए भाजपा से जुड़े ये भूतपूर्व प्रदेश अध्यक्ष अब भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में कांग्रेस और महा गठबंधन प्रत्याशियों के समक्ष लोहरदगा से बाहर गुमला , सिसई , सिमडेगा कोलेबिरा, खूंटी आदि क्षेत्रों में भी चुनौती प्रस्तुत कर चुनावी पसीना छुडाते नजर आ रहे हैं। कांग्रेस के अंदर पूर्व और आज भी आपस में कई लोगों के बीच तलवारें खिंची हुई थीं और हैं। कईयों की आपस में पटती नहीं है।
 कहने का आशय यह कि कांग्रेस आपसी संघर्ष में ही उलझी हुई है। सिसई सहित पूरे झारखंड में भी कमोबेश यही स्थिति है। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को लगता है कि वह कांग्रेस के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिन पार्टी उनकी सुध नहीं ले रही है और उनका बेहतर इस्तेमाल नहीं कर रही है। कहने का आशय यह है कि ऊपर से नीचे तक नेतृत्वहीनता का असर दिख रहा है । सिसई और फिर पूरे जिले में कांग्रेसी प्रत्याशी नहीं होने का असर चुनाव प्रचार पर भी नजर आ रहा है। कांग्रेस लोगों से जुड़ नहीं पा रही है और न ही उनसे जुड़े मुद्दे उठा पा रही है। राज्य सरकार को लेकर लोगों की जो स्वाभाविक नाराजगी होती है, उसे वह अपने अथवा महागठबंधन के पक्ष में नहीं कर पा रही है ।दूसरी ओर भाजपा को देखें, तो गुमला, खूंटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, कई अन्य केन्द्रीय मंत्री, मुख्य मंत्री रघुवर दास सहित उनके कैबिनेट के कई मंत्री अलग सघन प्रचार कर रहे हैं।
कांग्रेसी की एक दिक्कत और है कि विचारधारात्मक और प्रमुख राजनीतिक मुद्दों पर पार्टी का क्या रुख है, पार्टी नेताओं को यह स्पष्ट नहीं है। सबकी अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग है। केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर मोदी सरकार की आलोचना कर रही है, लेकिन झारखंड इसके मूक समर्थन में हैं। बहरहाल, लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्षेत्र राज्य व देश का मुख्य विपक्षी दल की यह स्थिति शुभ संकेत नहीं है।

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